Jhunni Lal Verma

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झुन्नीलाल वर्मा

साधारण से पटवारी परिवार में 26 सितम्बर, 1889 को जन्मे झुन्नीलाल वर्मा सुदृढ़ इच्छाशक्ति के पर्याय थे। आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एल.एल.बी. तक शिक्षा प्राप्त की और शिक्षक के रूप में जीवन प्रारम्भ कर नायब तहसीलदार बने। सरकारी नौकरी छोड़कर वकालत प्रारम्भ की और जीवनपर्यन्त मध्य भारत के अग्रणी वकीलों में शामिल रहे। अपनी कर्मयात्रा में आपने सचिव केन्द्रीय सहकारी बैंक, चेयरमैन डिस्ट्रिक्ट काउंसिल, सागर विश्वविद्यालय कार्यकारिणी के सदस्य और डीन फ़ैकल्टी ऑफ़ लॉ, सी.पी. एंड बरार विधान परिषद के सदस्य आदि पदों को सुशोभित किया। वर्मा जी ने सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक स्व. हरीसिंह गौर के साथ काम किया और विश्वविद्यालय कार्यकारिणी के उपाध्यक्ष पद पर सात वर्षों तक आसीन रहे। दमोह महाविद्यालय एवं विधि महाविद्यालय के संस्थापक अध्यक्ष रहे। उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाने के लिए ही विधि महाविद्यालय का नाम जे.एल. वर्मा विधि महाविद्यालय किया गया है। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी वर्मा जी ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस क्रम में 2 दिसम्बर, 1933 उनके लिए यादगार दिन था जब उन्हें महात्मा गांधी की अगवानी और मानपत्र समर्पित करने का अवसर मिला। 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के दौरान, महाकौशल प्रान्त के प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख के तौर पर
पं. जवाहरलाल नेहरू से भी मुलाक़ात की।

छात्र-जीवन से ही वर्मा जी का साहित्य के प्रति विशेष अनुराग था। उनकी साहित्य-प्रतिभा की साफ़ तस्वीर उनके ग्रन्थ ‘भरत-दर्शन’ में प्राप्त होती है जो 1956 में इंडियन प्रेस पब्लिकेशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। इसके बारे में मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था कि भरत चरित्र आकाश की तरह निष्पंक है और वर्मा जी ने अपनी लेखनी का उत्कृष्ट उपयोग किया है। साम्प्रदायिक सद्भाव पर लिखा गया उनका नाटक ‘मानवाश्रम’ भी काफ़ी लोकप्रिय था। उनका नवीनतम ग्रन्थ ‘कर्म संन्यासी कृष्ण’ श्रीकृष्ण की कथा और कौशल की स्पष्ट छवियाँ हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है। मानवीय मूल्यों में उनकी असन्दिग्ध आस्था थी, वे कहा करते थे कि “जागृत का संकेत सदा गति श्रम में उसका खो जाना है।”

उनकी कर्मयात्रा 11 दिसम्बर, 1980 को समाप्त हुई।

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